२४७ रस निरूपण मैं। पामर - परम नाक - पति पद पावत है नाक - पति पामर - पगन परसत है। 'हरिऔध' कल्पना रहित काल - कौतुक है कल्प - तरु कबहूँ अँगारे बरसत है। अ - सरस बनत बसंत दाघ के समान दाघ बनि सरस - बसत सरसत है ॥६॥ गुनिन मैं गौरव लहत गुन - आगर है नागर - निकर निवसत है नगर सोहत है पावन - सलिल - सुर - सरि मॉहि किसलय - कलित लसत तरु • वर मैं। 'हरिऔध' मान है समान संग माँहिं होत मंजुलता बसति मयंक - मंजु • कर मैं । सर मैं खिलत सरसीरुह - समूह देखे मिलति मराल - मंडलो है मानसर मैं ॥ ७ ॥ चरन बिनाहुँ अहै चलति अचल मॉर्हि करन बिनाहुँ वार करति अपार है। बीरन को मारि मारि अमर बनावति है धीरन को वाकी धार परम - अधार है । 'हरिऔध' संतत हरति जन - जीवन है जीवन को तबहूँ रखति बहु - प्यार है। पानिप अछत सदा रहति पिपासित है तेज-वारी कै तम - वारी तरवार है ।।। सवैया- वावरी बोध न होवे अजौं कर कैसे लियो गिरि-गोधन सारो। त्यों छन ही मह पान कियो किमि पावक हूँ बन - दाहन - वारो। 1
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