२१६ उद्दीपन-विभाव पै शिशिर-अंतर्गत होरी कवित्त- द्वारन को दर को दरीचिन को देहरी को दिसन को देहिन को रंजित कीनो है। वगर को वीथिन को वाटन बजारन को विटप को वेलिन को कीनो रंग भीनो है। 'हरिऔध' अविर उड़ाइ कै अवासन को और ओप अवनि को ऑगन को दीनो है। नू पुर को नासिका को नथ को नवेलिन को वाल अलवेलिन को लाल करि लीनो है।।१।। तवल पै तारन पै तंत्रिन तमूरन तान - वारे तन पै प्रवाल तरसत है। कानन पै कुंजन पै कंज पै कुमोदिनी पै क्यारिन पै कूल पै ललाई दरसत है। 'हरिऔध' आनन पै अंगन अवनि हूँ पै ऐन पै अटा पै अरुनाई अरसत है। गोधन पै गिरि पे गवैयन पै गोपन पै गोपिन के गोल पै गुलाल वरसत है ।। २ ।। ऐसो वादयो फाग को प्रपंच ब्रज-वीथिन मैं वीज लालिमा को मानों लोकन मैं वै गयो। लाल भयो गगन अवनि सव लाल भई दिसन ललाई छाई रवि - तेज स्वै गयो । 'हरिऔध' लाल लाल हेरि गिरि तरु तोम नर पसु पंखी मीन बिधि - जान ग्वै गयो। लाग्यो जौ लौं मांकन झरोखे सो उझकि तौ लौ राता मुख वापुरे-विधाता हूँ को है गयो।। ३ ।।
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