२१७ उद्दीपन-विभाव तोख तन पावै तूल - भरे कपरे के धरे अजहूँ मलीनता दिगंत की गई नहीं। प्यारे लगै भौन भारी - भारी परदान - वारे भीखनता अजौं भानु - कर ने लई नहीं। 'हरिऔध' चहूँ ओर सिसिर छयो तो कहा आप हूँ मैं सीतलता - सहज भई नहीं। मंजुल - निकाई चारु चंद मैं समाई नॉहिं चारुता - अनूठी चाँदनी मैं चितई नहीं॥॥२॥ साथ प्राननाथ के सिसिर मैं समोद - वाल सरित सरोवरादि मोहि अवगाहै ना। बार बार धूप ही मैं बैठे छवि - वारी जाव सीत-छोभ मॉहिं छकी चाहै छनौ छाहै ना। 'हरिऔध' सी सी कर सीतल - समीर लगे सीतलता वाकी अर्जी सुमुखी सराहै ना। चाँदनी मैं कढ़े नेकौ चित मैं उमाहै नाँहि चंद-मुखी चाव करि चंद हूँ को चाहै ना ॥ ३॥ तपि के तमारि निज तीखन - मरीचिन ते नेकौ सीत प्रवल - प्रमादन को तोरै ना ! पावक को दहत - अनारो पट तूल - डारो पूरो पूरो हिम को महत - मान मोरै ना ! 'हरिऔध' सिसिर समैया हूँ मैं सीरी-पौन गौन करि भौनन मैं देत दुख थोरै ना। औरन की कहा पाई जरदी पतौअन हूँ सर्दी मरदी के तऊ वेदरदी छोर ना ॥४॥ २६ 1
पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।