रसकलस २०८ 'हरिऔध' प्यारी छवि छाई अवनी-तल पै पावै मोद सीतल है तबौं मेरो ही कहाँ। लाग करि आई बाग बिरह दबाइवे को एरी पै अभाग - वारी पावै सुघरी कहाँ। जो लौया हमारो जी हरा न नैको होन पायो पातकी - पपीहरा पुकारथो तौ लौ पी कहाँ ।। ४ ।। भूखन बिना ही भूरि भूखित भई सी लसै भावुकता दीखै भामिनी के भाव भोरे मैं। चचल-चितौन चित मॉहिँ चुभि चुमि जाति चारुताई - चौगुनी लखाति चारु-डोरे मैं ।। पन्नगी सी पंग पारि पारि के पलटि जात लपकि लपटि जात 'हरिऔध'-कोरे मैं । ऊँची-ऊँची - तानन ते कानन सुधा बगारि गोरे - गोरे - आनन की मूलति हिंडोरे मैं ॥ ५ ॥ सवैया या कजरारी घटान-छटान को वैठी श्रटान बिलोकत जाति है। मोद मयूरिन को लखि कै मन ही मन मोद-भरी मुसकाति है ॥ प्रात परी सी घरी ही घरी 'हरिऔध' के अक परी अलसाति है। वाल विलासवतीन को वोर विलासमयी बरसात की राति है ॥६॥ चहुँ-कोद पयोद बिलोकन मैं निज मोद-भरो मन दीवो करो। करि कौतुक हूँ कल-कुजन मैं हियरा हमरो हरि लीवो करो। 'हरिऔध' मयूरिन मो मिलिक नव-प्रेम-सुधा नित पीबो करो। चोरवा चित को हित कीनो भटू मोरवा सोरवा अब कीबो करो ||
पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।