इससे क्या प्रतिपादित हुआ? यही न कि जिन दर्शकों के हृदय में रति-भाव सचारी-भाव के रूप में प्रकट होगा, उसमें उसको रसता नहीं प्राप्त हो सकती। रसता उसी के हृदय के रति-भाव को प्राप्त होगी, जिसमें उसका आविर्भाव स्थायी रूप में होगा। ऐसे भावुक अल्प होते हैं, यही आचार्यों की सम्मति भी है। साहित्य-दर्पण में इसका यह प्रमाण उठाया गया है――
‘पुण्यवन्त, प्रमिण्वन्ति योगिवद्रससततिम्’।
‘जैसे कोई-कोई विशिष्ट योगी ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, इसी प्रकार कोई-कोई पुण्यवान् अर्थात् वासनाख्य सरकार से युक्त सहृदय पुरुप रस का आस्वाद लेते हैं’। ――साहित्य-दर्पण
अब आप लोग समझ गये होंगे कि किस लिये अधिकाश दर्शकों की रति को रसता नहीं प्राप्त होती। वास्तविक बात यह है कि जिन हृदयो मे रति सचारी भाव में ही परिणत हुई, उनमें तो उसको स्थायी भाव का पद भी नहीं प्राप्त हुआ, फिर उसको रसता कैसे मिलती? वसतागम से जो उन्माद कोकिल के हृदय में उत्पन्न होता है, जलदागम से जो प्रगाढ प्रेम पपीहा के हृदय में उदय पाता है, उसके अधिकारी अन्य पक्षी नहीं हो सकते। श्रावरण के मेघ को उपादेयता क्वार के श्वेत बादलों में नहीं मिलती।
साहित्य में रस किसे कहते हैं, उसकी उत्पत्ति कैसे होती है? उसका अधिकारी कौन है? प्राय अधिकाश दर्शकों के भावों को रसता क्यों नही प्राप्त होती? इन विषयों पर मैं अपना विचार प्रकट कर चुका। रस-सवधी कुछ और बातें भी सुनिये।
रस का इतिहास
काव्य के दो भेद हैं—श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य। जो काव्य केवल श्रवण किया जा सकता है, उसको ‘श्रव्य’ कहते हैं, जैसे महा-