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१६५ उद्दीपन-विभाव अघमा सवैया- मैनमयी लखि मूरति स्याम की बीर न कैसहूँ धीर धरैगी । नैन परी जो कहूं मुसुकान तो फेर न ऐसो गुमान करेगी। सॉची कहौं हरिऔध' मिले सबही अठिलानि की बानि टरेगी। का न करेंगी अरी तू अवै यह बॉसुरी-तान जो कान परैगी ॥१॥ विरह-निवेदन नायक-नायिका दोनों का विरह दूती एक दूसरे पर जिस कार्य द्वारा प्रकट करती है उसे विरह-निवेदन कहते हैं । उदाहरण उत्तमा कवित्त- छिन छिन छीजत है परम छवीलो अंग बिपुल - बिलासवती हिम सी विलाति है। रस हीन सहज - सरलता सरसि होति सूवति सनेहमयी - सरिता लखाति है। 'हरिऔध' आये तो तुरंत अवलोको चलि बिधुरा बियोग • वारिनिधि मैं समाति है। सुधि आये सिहरि सिहरि बहु सिसकति गात सियराये वाल सीरी परी जाति है ॥१॥ दोहा- नेह - स्वातिजल - दान कै सरसहु धन - अभिराम । पी पी कहि प्यारी रटति पपिहा लौं तव नाम ॥२॥