का ही स्वाद चखा है। आशा है, इतना निवेदन करने के बाद यह बात समझ में आ गई होगी कि सबके रति-भाव को रसता क्यों नहीं प्राप्त होती। वास्तविक बात यह है कि परमानंद प्राप्ति का अधिकारी पूर्ण ज्ञान-प्राप्त, उदात्त और भावुक हृदय ही होता है और उसी के रति-भाव को रसता प्राप्त होती है। अपनी भावना के अनुकूल थोड़ा-बहुत आनंद लाभ करनेवाले की रति का ऐसा सौभाग्य कहाँ? भगवान् मराचिमाली की किरणे अनेक वस्तुओं पर प्रतिफलित होती हैं, किन्तु हिमाचल के हिम-धवल श्रृगों का गौरव किसे प्राप्त होता है?
यहाँ पर मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जितने स्थायी भाव हैं, अनेक अवस्थाओं में वे संचारी ही रहते हैं, विशेष अवस्था में ही उनको रसत्व प्राप्त होता है। रति अथवा अनुराग की भी यही अवस्था है। साहित्य-दर्पणकार लिखते है—
अत्र च रत्यादिपदोपादानेन स्थायित्वे प्राप्ते पुनः स्थायिपदोपादान रत्यादी- नामापे रसान्तरेऽस्थायित्वप्रतिपादानार्थम्। ततश्च हासकोधादयः श्रृंगारवीरादौ व्यभिचारिण एवं।
भावार्थ इसका यह है, 'जो रति आदि एक रस के स्थायी हैं, वे ही दूसरे रस में जाकर अस्थायी हो जाते हैं, अतः श्रृंगार-वीरादि रसो में हास, क्रोध आदि जो हास्य और रौद्रादि रसो के स्थायी हैं, संचारी (अस्थायी) हो जाते हैं।
'रत्नाकर'-कार भी यही कहते हैं, जिसका प्रतिपादन रसगंगाधर-कार भी करते हैं—
स्तीचेर्विभावयन्नास्त एवं व्यभिचारिणः॥
'अधिक विभावादिकों से उत्पन्न हुए रति आदि स्थायी भाव होते हैं और वे ही जब थोड़े विभावादिकों से प्रसृत होते हैं तो व्यभिचारी कहलाते हैं।'
—हिन्दी रसगंगाधर