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गति-विधि पर विचार करने से यह बात भी स्पष्ट हो जावेगी। अब रही दर्शको के रति भाव की बात।

मैं पहले कह आया हूँ कि लीला देखने में सब दर्शको की तल्लीनता समान नहीं होती, ऐसी अवस्था में सब के हृदयो में रति भाव का उदय एक रूप में न होगा, उसमे तारतम्य होगा। कहीं वह तरला- तितरल, कहीं तरल, कहीं प्रगाढ़ और कहीं उससे भी प्रगाढ़ होगा। कोई बाजो का अनुरागी होता है, कोई गाने का, कोई वेषभूषा का, कोई स्वाभाविक दृश्यों का, कोई रामायण सुनने का, कोई उसकी भावमय कविताओं का, कोई उसके शब्द-विन्यास का, कोई हाव-भाव-कटाक्ष का, कोई नाच-रंग का और कोई वार्तालाप का, कोई स्वरूपों को साधारण मनुष्य समझेगा, कोई राजकुमार और कोई अवतार। इस दृष्टि से उनमें किसी की रति सामान्य होगी, किसी की उससे अधिक और किसी की अगाध। कोई इनमें से दो-दो तीन-तीन बातों के प्रेमी मिलेगे, कोई कई एक के और कोई सभी बातों के। जिसकी जैसी रुचि होगी, उसी के अनुसार उसकी भावग्राहिता होगी और उसी के परिणाम से उसकी रति तरल, प्रगाढ़ अथवा अधिक प्रगाढ़ होगी। मैं पहले गान, वाद्य अभिनय इत्यादि साधनों के प्रभाव का विस्तृत वर्णन कर आया हूँ। यह भी बतला चुका हूँ कि सब साधनों का सम्मिलित प्रभाव जितना हृदय-प्राही, विमुग्धकर ओर व्यापक होता है, उतना किसी एक अथवा दो-चार का नहीं। ऐसी अवस्था में आप यह सोच सकते हैं कि किसके हृदय का रति-भाव किस अवस्था में किस कोटि का होगा। केवल दूध-दही, घी शहद, मीठे को अलग-अलग अथवा इनमें से किसी दो-तीन-चार को एक साथ आस्वादन करनेवाला पचामृत के स्वाद का आनंद नहीं प्राप्त कर सकता और न अनेक सुंदर और स्वादिष्ट पेय पदार्थों से बने हुए प्रपानक रस पान का परमानंद वह पा सकता है, जिसने उनमें से किसी एक-दो पेय वस्तुओं