सब के हृदय पर समान प्रभाव नहीं पड़ता। कोई उनको देखकर अत्यन्त विमुग्ध होता है, कोई अल्प और कोई नाम-मात्र को। कुछ लोग वहॉं ऐसे भी दिखलाई देते हैं, जिनका हृदय रामलीला देख प्रभावित होकर भी प्रभावित नहीं होता। इससे यह जाना जाता है कि रस का अधिकारी सब का हृदय नहीं होता। जिसमें भावुकता नहीं— जिसकी वासना रस-प्रहरणाधिकारिणी नहीं—और जिसकी संस्कृति में रसानुकूल साधनाये नहीं, उनके हृदय में रस की उत्पत्ति नहीं होती। साहित्य-दर्पणकार ने इस बात के प्रमाण में एक विद्वान का यह वचन उद्धृत किया है—
सवासनानां सभ्यानां रसस्यास्वादन भवेत्।
निर्वासनास्तु रङ्गान्तः काष्ठकुड्याश्मसन्निभाः॥
"वासनायुक्त सभ्यों को ही रसास्वाद होता है। वासना-रहित पुरुष तो नाट्य-शाला में काठ, पत्थर और दीवाल के समान ही जड़ बने रहते हैं।"
प्रयोजन यह कि समस्त साधनों के उपस्थित होते भी जिसके हृदय का स्थायी भाव यथातथ्य व्यक्त नहीं होता, उसके हृदय में रस की उत्पत्ति होती ही नहीं। रस की उत्पत्ति तभी होगी जब स्थायी भाव व्यक्त होकर विभाव, अनुभाव और सचारी भाव के साथ सर्वथा तल्लीन हो जायगा। साहित्य-दर्पणकार कहते हैं—
ननु तर्हि कथ रसास्वादे तेपामेकः प्रतिभास इत्युच्यते— :::प्रतीयमानः प्रथम प्रत्येक हेतुरुच्यते।
तत सम्मिलितः सर्वो विभावादिः सचेतसाम्।
प्रपानकरसन्यायाच्चर्व्यमाणो रमो भवेत्।
यथा खण्डमरिचादीना सम्मेलनादपूर्व इव कश्चिदास्वादः प्रपानकरसे सजा- वते विभावादिसम्मेलनादिहापि तयेत्यर्थः।
"अच्छा तो फिर रसास्वाद में उन सब विभावादिको का एक प्रति-