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रसकलस १६२ मैं - उदाहरण कवित्त--- सूरता सासन - उदारता है दरसति सॉच मॉहि नीति - निपुनाई निवसति है। भूत की भलाई है उछाह में विराजमान घिन माहिं नीच - हित - वासना वसति है । 'हरिऔध' सोभा ही ते सोभावान सोभित है उच्च - रुचि प्रतियोगिता ते विकसति है अनुरागिता मैं लोक - अनुराग को है रंग चातुरी में चारु - चित चारुता लसति है ।। १ ।। दोहा- अवनी - तल - अपकार - तम करि निज - कर सो दूर । लहे मूरता वनत है जन - जीवन नभ - सूर ॥२॥ नर - गौरव - गिरि -सिसर को करति विपुल-छविमान । लोक - हितकरी - चातुरी लसि चॉदनी समान ।। ३ ।। मानवता विकसित न तो जो न सचाई होति । है वह जन - मन - ससि-सुधा नर-तन - दीपक-जोति ॥ ४ ॥ बहु - फल - दायक - बनत है छन छन करि छविवत । है उछाह नर - विटप को सरमत - लसत - वमत ।। ५ ।। मानव मानस मोहिनी रस टाइनी - महान । कौन है अनुरजिनी अनुरागिता समान ॥६॥ जाते 'प्रव में घुन लगे मो घिन ताहि मुहात । नीचन को मौ जतन मो मुजन सुधारत जात ॥ ७ ॥ जन करि फरि प्रतियोगिता क्व न जगावत भाग। फोन लगावत है नहीं भली लगन की लाग || ||