रसकलस १४६ वैठति उठति बिकल वनति बिलपति लहति न चैन । चितवति सखि-मुख दुखित बनि काटे कटति नरैन ॥ २॥ प्रौढ़ा दोहा- बीती निसि आये नहीं अब लौ नयनानद । कहा करौ कैसे गहौं बामन वनि के चद ।।१।। सेज - परी सिसकति कबौं कबौं भरति है आह । घरी घरी उठि उठि वधू पिय की जोहति राह ।।२।। बरवा- श्रावति खिन अंगनैया खिन चलि जाति । उठि उठि गिनति तरैया कटति न राति ।। ३ ।। पसरी निरखि जुन्हैया चंदहिं चाहि । कामिनि परी सेजरिया उठति कराहि ।। ४ ।। परकीया कवित्त- पौन मंद बह्यो छाई सेतता दिसन मॉहिं दीपक मलीन भयो अधकार टरिगी। गात सियरानो बोले वृद चरनायुध के कलगै चिरियन को चारो ओर भरिगो। 'हरिबोध' आये नॉहिं अखियाँ उनींदी भई अहह हमारो भाग आज हूँ विगरिगो। परी वीर देखु अरुनाई छाई अवर मै तारन • समेत तारापति फीको परिगो।।१॥ वासकसज्जा रिय-समागम का निश्चय करके जो केलि सामग्री को सजित करती अथवा सखियों द्वारा नुसजित होती हो उसे वासरुसना कहते हैं।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/३९३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।