भरत मुनि कहते हैं—
यथा नराणा नृपति शिष्याणा च यथा गुरु।
एव हि सर्वभावानां भावः स्थायी महानिह॥
जैसे मनुष्यों में राजा, शिष्यों में गुरु, वैसे ही सब भावों में स्थायी भाव श्रेष्ठ होता है।
काव्यप्रकाशकार पहले अष्ट रसों का नाम बतलाते हैं। वे ये हैं—
श्रृड़्गरहास्य करुणरौद्रवारभयान काः।
वीभत्साद्भुतसज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः॥
फिर कहते हैं—'एत्रां स्थायी भावानाह'।
अब इनके स्थायी भावो को बताता हूँ। उनके नाम सुनिये—
रतिर्हासश्च शोक्श्च क्रोधोत्साहौ भय तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावा प्रकीर्तिता॥
अंत में लिखते हैं—निर्वेद स्थायिभावोऽस्त शान्तोऽपि नवमो रस।
इन पक्तियों के पठन करने से यह स्पष्ट हो गया कि श्रृंगार, हास्य, करुण आदि नव रसो के जनक रति, हास, शोक आदि नव स्थायी भाव हैं। इन स्थायी भावों में से कोई एक जब विभाव, अनुभाव और सचारी भाव की सहायता से लोकोत्तर आनंद रूप में परिणत होकर व्यक्त होता है, तब उसकी 'रस' संज्ञा होती है।
मान लीजिये कि कहीं कोई रामलीला-मंडली आई है और किसी सुमज्जित स्थान पर रामलीला हो रही है। मधुर स्वर से बाजे बज रहे हैं, कमनीय कठ से रामायण का गान हो रहा है, और अपार जनता वहाँ एकत्र है। इतने में जयध्वनि हुई, और एक रमणीय वाटिका में किशोर-वयस्क भगवान् रामचंद्र अपने प्रिय अनुज के साथ पुष्पचयन करते दिखाई पड़े। फिर ककरण-किंकिणी की ध्वनि हुई और मदगति से श्रीमती जनकनन्दिनी का सखियों समेत उसमें प्रवेश हुआ। धीरे- धीरे पुष्पवाटिका की लीला का समा बँधने लगा और चारो ओर