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लोक में जो रति आदिक के उद्बोधक हैं वे ही काव्य और नाटकों में 'विभाव' कहलाते हैं, इसकी व्याख्या ग्रन्थकार ही यों करते हैं—

"ये हि लोके रामादिगतरतिहासादीनामुद्बोधकारणानि सीतादयस्त एव काव्ये नाट्ये च निवेशिताः सन्तः विभाव्यन्ते आस्वादावरप्रादुर्भावयोग्या क्रियन्ते सामाजिकरत्यादिभावा. एभिः इति विभावा उच्यन्ते।"

"लोक में सीता आदिक जो रामचंद्रादि की रति आदि की उद्बोधक प्रसिद्ध हैं वे ही यदि काव्य और नाटक में निवेशित किये जावें तो 'विभाव' कहलाते हैं, क्योंकि वे सहृदय द्रष्टा तथा श्रोताओं के रत्यादिक भावों को विभावित करते हैं अर्थात् उन्हें रसास्वाद की उत्पत्ति के योग्य बनाते हैं।"

विभाव के दो भेद हैं—पहला आलम्बन और दूसरा उद्दीपन। रति आदिक स्थायी भावों के आधार नायक-नायिका 'आलम्बन' और उनके उद्दीप्त करनेवाले चंद्र, चॉदनी, मलय-पवन आदि 'उद्दीपन' कहलाते हैं। साहित्य-दर्पणकार लिखते हैं—

आलम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।
आलम्बनो नायकादिस्तमालम्ब्य रसोद्गमात्।
उद्दीपनविभावास्ते रसामुद्दीपयन्ति ये।

२—अनुभाव—'अनुभावयन्ति इति अनुभावा'।

रति आदिक स्थायी भावों का जो अनुभव कराते हैं उन्हें अनुभाव कहते हैं। अमरकोशकार लिखते है—'अनुभावो भावबोधक.'।

३—व्यभिचारी अथवा सचारी भाव—

साहित्य-दर्पणकार कहते हैं—

'स्थिरतया वर्त्तमाने हि रत्यादौ निर्वेदादय, प्रादुर्भावतिरोभावाभिमुख्येन चरणादव्यभिचारिता. कथ्यन्ते'।

रति आदिक स्थायी भाव में आविर्भूत और तिरोभूत होकर जो