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रसकलस - मन मैं - अक असंक भरे 'हरिऔध' को रीति गहे रति की अति प्यारी । काम-कलोल मैं काल बितावति बाल-बिलोल-बिलोचन-वारी ।।१॥ दोहा- कबहू कबहूँ कामिनी रखति लाज सो काज । मैं नयन मैं अतन बिराजत आज ॥२॥ प्रौढ़ा के मेद प्रौदा के दो भेद हैं-१ रतिप्रीता २-आनंदसमोहिता। रतिप्रीता जिसको रति से अधिक प्रीति होती है उसे रतिप्रीता कहते हैं । दोहा- अरे उमग परे रहहु कहाँ भयो पिय भोर । है तमचुर को रव नहीं वोलत तम मैं चोर ।। १ ।। आनंदसंमोहिता रति-सुख-जानित आनंद से मोहित नायिका को आनदसमोहिता कहते हैं। उदाहरण दोहा- नाना केलि कला करति लहे लाल सुख - कंद । रोम रोम में भरि बहत वाको उर - आनंद ॥ १ ॥ अगराग आनद को अंग अंग मैं पोति । रस - बस देह कामिनी काम-कामिनी होति ।।२।। मध्या और प्रौढ़ा के भेद मान-भेद के अनुसार मध्या और प्रौदा के तीन भेद होते हैं, अर्थात्- १.वीरा, २ अधीरा, ३ धीराधीरा ।