११५ नायिका के भेद राखति काम को चाव नहीं तऊ काज की ऐसी सु-बान लगी है। संक समेत मयंक - मुखी पिय - मंजुल अंक मै जान लगी है ।। १ ।। दोहा- चौंकति चकित वनति विहसि वितरति वहु आनंद । चंद-मुखी अव चाव सो चितवति पिय-मुख-चंद ॥२॥ २-मध्या जिस नायिका में लजा और काम-वासना समान होती है उसको मध्या कहते हैं । यह दशा सूक्ष्म और अचिरस्थायिनी होती है । उदाहरण सवैया- बैठी हुती सखियान में बाल बड़ी अखियान मैं अजन लाइकै । चार - कपोलन पै छिटकी अलकै छवि देत हुती छहराइकै । बात-रसीली सुनाइ रसे 'हरिऔध' हॅसे इतनेहि मैं आइकै । नार नवाइ सकाइ रही मुसकाइ रही हग मोरि लजाइकै ॥१॥ दोहा- रहि रहि उमगत रहत उर सकुच ताहि गहि लेति । तिय चाहति पिय सों मिलन लाज मिलन नहिं देति ॥२॥ ३-प्रौढ़ा संपूर्ण काम-कला में निपुण किंचित् लजावती नायिका को प्रोढ़ा कहते हैं । उदाहरण कवित्त- कंचुको छोरि कसे कुच की मुकतान के मजु - हरान उतारी। दूरि कै दोऊ - भुजान के भूखन मंजु - मनोहर वैन उचारी ।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/३६४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।