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उसका यह कारुणिक भाव हमारे हृदय में करुणा उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। हमने एक बंगाली को देखा कि जब मधुर स्वर में वह वेला बजाने लगता तो आप भी मस्त हो जाता और अपने मधुर- वादन और भावभंगी द्वारा अन्धों को भी कुछ-न-कुछ मस्त बना देता। जो कवि कविता पढ़ते-पढ़ते स्वयं मुग्ध हो जाता है वह दूसरो को भी मुग्ध बनाये बिना नहीं छोड़ता। भजनानंदी औरो को भी आनंदित कर लेता है। यदि यह सत्य है तो यह भी सत्य है कि एक सरस हृदय से निकले हुए प्रभावजनक भाव अन्य हृदय को सरस बनाये बिना नहीं छोड़ते। यह हुई साधारण अवस्था की बात और जब प्रगाढ़ होकर यह अवस्था उच्चतर हो जाती है तभी रस की उत्पत्ति होती है। नाट्यशास्त्रकार महामुनि भरत लिखते है—

'विभावानुभावव्यभिचारिमंयोगाद्रसनिष्पत्ति.'

विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है। काव्य-प्रकाशकार इसकी टीका यों करते हैं—


"कारणान्यय कार्याणि सहकारीणि यानि च।
रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः।
विभावा अनुभावाश्च कथ्यन्ते व्यभिचारिणः।
व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः।"

लोक में रति आदिक स्थायी भावों के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं नाटक और काव्य में वे ही विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी-क्रम से-कहलाते हैं। इन विभावादि की सहायता से व्यक्त स्थायी भाव की रस संज्ञा होती है।

यहाँ प्रश्न यह होगा कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी अथवा संचारी भाव किसे कहते हैं। इस विषय में साहित्य-दर्पणकार यह लिखते हैं—

१—विभाव—'रत्याद्युद्बोधका लोके विभावाः काव्यनाट्ययेः'