रसकलस १०४ 'हरिऔध' देखि देखि देस को पतनप्राय परम् - दुखित देस - प्रेमिका दिखाती है। बालिका-बिवाह-बिधि बिबिध-बिथा है देति विधवा-बिवाह की अ-बिधि बेधि जाति है ॥१॥ बसन - विदेसी की बसनता बिसरि सारी बित्रस बनेहूँ देसी -बसन बिसाहै है। समता - बिचार मैं असमता - विपुल देखि पति -प्रीति - ममता को परखि उमाहै है ।। 'हरिऔध' परकीयता को परकीय जानि सकल - स्वकीयता को सतत सराहै है। भारत की पूजनीयता को पूजनीय मानि भारतीय - वाला भारतीयता निबाहै है ।।२।। सुंदर - सिंदूर - बिदु ही ते सुंदरी है होति पौडर को सममि असुंदर डरति है। सोंधे के सु - बास ते सुवासित रहति भूरि सावुन के परसे उसासन भरति है। 'हरिऔध' पर के असन को असनि कहै आपने वसन वेस को न विसरति है सारी-असॅवारी हूँ पहिरि पुलकति प्यारी साया परे साया के सवाया सिहरति है ।।३।। लोक-सेविका कवित्त- बनत कुलीन अकुलीन के करत काम कुल को कलंकित कुलीनता करावे है।
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