रसकलस SS सवैया- सुंदर चॉद सों भोरो-भलो मुख काको अहै भुवि मै चित-चोरना। गोरो-गुलाब लौं भाव-भरो तन लेत है काको भटू मन-छोरना । ए'हरिऔध' अनूठी-छटा लखे कैसहू कोऊ सकै मुख मोर ना । काको न ए बड़े-नैन किये बस काके हिये मैं गडी कुच कोर ना ||२|| उदर दोहा कै है कोऊ काम-थल चलदल-दल- अनुरूप । कै विलसित त्रिबली - बलित - नवला - उदर - अनूप ।।१।। सोहत है सरसिज- दलन सरिस सरस - छवि धारि । लगत असुदर मानसर सुदर - उदर निहारि ।।२।। रोम-राजि कवित्त- उरजविलबी कारे केस पन्नगेसन सों केलि करि खेलि मेलि बदन बदन ते । सुठि - सुरसरि - धार मोतोहार मैं समोद बार - बार विहरि विलासिनी मदन ते 'हरिऔध' पान काज नाभि - सर को पियूख विसरि अपान मिलि मदन - कदन ते। लसत न कचुकी सकुच ढिग रोम-राजि निकसत पन्नगी पिनाकी के सदन ते ॥१॥ माला कवित्त- सरपेच हेकै पेच माँहि पार ऑखिन की बेसर है विकल बनावै मति आन की ।। -
पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।