ध्वनि उतनी ही उल्लासकरी। रण-वाद्य जैसा उत्तेजक है, मृदंग वैसा ही मानस-विमोहक। जब कोकिल बोलता है तो ज्ञात होता है कि उन्माद हृदय का आलिंगन करता है, किंतु चातक के स्वर में यह बात नहीं पाई जाती, उसको सुनकर चित्त किसी मर्म-पीड़ा का अनुभव करने लगता हैं। किसी-किसी पक्षी का स्वर इतना मधुर और मोहक होता है कि वह प्रकृति-वधूटी का वसुन्धरा-विमुग्धकर कोई अलौकिक आलाप जान पड़ता है। यद्यपि इन बातों से हमारी मानसिक स्थिति और संस्कृति का बहुत कुछ संबध है तथापि स्वरों और ध्वनियों की भाव- प्रवणता अस्वीकार नहीं की जा सकती। फिर भी यह कहना पड़ेगा कि वचन-रचना उससे अधिक प्रभावमयी है। व्यापकता में चाहे वह उसका सामना न कर सके, किंतु प्रभावशालिता में उसको अवश्य उत्कर्ष है। आप लोगों ने व्यासासन पर से यदि किसी सुवक्ता को किसी विषय का निरूपण करते सुना होगा अथवा किसी 'हॉल' में बैठकर किसी प्रसिद्ध वाग्मी का भाषण श्रवण किया होगा तो आप लोगों से यह छिपा न होगा कि वचन-रचना में कितनी शक्ति होती है। जनता को हँसा, देना, रुला देना, उत्तेजित कर देना, उसके मन को अपनी मुट्ठी में कर उससे मनमानी करा लेना उनके बाए हाथ का खेल होता है। भगवान् बुद्ध, महात्मा ईसा और हज़रत मुहम्मद ने अपनी विचित्र वाक्य -रचना-शक्ति से संसार में जो चमत्कार कर दिखलाया वह लोकोत्तर और अभूतपूर्व है। कोई मधुर ध्वनि और मनोहर निनाद आज तक वह कार्य न कर सका। कालान्तर में भी न कर सकेगा। 'सरगम' का समादर है, परतु क्या उतना ही जितना भावमय गान का? हारमोनियम की स्वर-लहरी विमुग्ध करती है, किंतु क्या फोनोग्राफ के इतना ही? कनसर्ट का कमाल आप लोगों ने देखा होगा, अनेक सम्मिलित स्वर किस प्रकार उसमे आकर्षण उत्पन्न करते हैं, जिसने उसको सुना होगा वह इस बात को भली भाँती जानता
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