७६ आलंबन विभाव बिख-उगिलत बिगरत लरत बंक चलत गहि मान । कहा एक तिल पै करत इतनो नैन गुमान ।। २ ।। चाल निराली हगन की बूझि परत कछु नॉहि । कैसे ए तिल एक सों तौलि लेहिं मन कॉहि ॥३॥ दृग-कोर कित इनकी गति है नहीं कहाँ न इनको जोर । काके उर मैं नहिं गड़ी बॉके हग की कोर ॥ १॥ मोल - जोल कीने बिना लै अमोल मन मोर । चाहति कहा अकोर अब तेरे हग को कोर ॥२॥ रहि - रहि कसकत ही रहति कीनेहु जतन करोर । कढ़ति न काढ़े कैसहूँ तिय तव अखियन-कोर ।। ३ ।। चितवन दोहा-- बार - बार, बिगरति रहति बूझि परत नहिं गाथ । क्यों चित बनत न देखियत तिय-चितवन के साथ ॥ १ ॥ किये कटीले कमल औ मीनन को उपमान । निपट कटीलो है गई कामिनि की अँखियान ॥२॥ देह गेह की सुधि बिबस को नहिं देत बिसारि । एरी यह जादू - भरी तेरी नजर निहारि ॥ ३ ॥ समर - सामुहें देखियत सूरमाहुँ की का न कामिनी की कर बंक-गामिनी दीठ ॥४॥ नासिका दोहा- तो की चल अँखियान मैं नीकी नाक लखाय । रारी-खंजन बीच कै कीर पयो है आय ।। १ ।। पीठ।
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