रसकलस ७४ बगरे ए न विलोकियत मेचक चिकुर अथोर । कढि कलक एकत भयो मुखमयंक दुहुँ ओर ।। १५ ।। भाल बिरचन में जाके जले बिधिहुँ निराली चाल । निरखि भाल भूले मनहिं कैसे सकहिं सँभाल ॥ १ ॥ जके थके निरखत रहे सके न बूमि बिचार । पारत रसिकन पेच मैं परि के सिकन लिलार ॥२॥ नवल बाल के भाल पै के वल परो लखाय । के दरपन - तल पै परी लहर - लरी दरसाय ॥३॥ वाल - भाव ऊँचो लसै किधौं समूचो चैन । छटा - अटा के यह पटा मजु चौहटा - मैन ॥४॥ भौंह कहा करें अनुमान किमि कही न मानत मोर । मुरत न मोरे मन पो भामिनी - भौंह - मरोर ॥१॥ भामिनि - भौंह विलोकियत विगरत बनत सवेग। गुजारत कौन पै यह गुजराती तेग ॥२॥ विन गुन विसिख विलोकियत बीरन करत अमान । कहैं क्यों न हम कामिनी - भौंहन काम - कमान ॥ ३ ॥ वोर बूझियत भौंह को बंकिम मुकी विलोकि । चली जात अलि की अवलि नन-कमल अवलोकि ।।४।। बक पाँति विधि कर लिखि विविध - भाव - आधार । को विचार भौहन करै विना भये मुख चार ॥ ५॥ जन - मन - नेनन को हरति गति-मति करति अपंग। भौंह की बंकता मिली कुटिलता - संग ।। ६॥ गजब वक
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