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वर्णात्मक शब्दों की महत्ता और क्या बतलाई जा सकती है। व्यवहार में देखा जाता है कि जिसकी वाचाशक्ति जितनी बढ़ी और सुसंगठित होती है संसार में उसको उतनी ही सफलता मिलती है। 'बात की करामात' प्रसिद्ध है और इस कहावत को कौन नहीं जानता—'बातै हाथी पाद्ये बातै हाथी-पाँव'। मनुष्य के हृदय पर अधिकार करने की शक्ति जितनी इसमें है, अन्य किसी दूसरी वस्तु में नहीं। जहाँ वचनरचना और ध्वनि दोनों मिल जाती हैं, वहाँ मणिकांचन योग हो जाता है और असंभव संभव होता है। भाव और विचारो को इनके द्वारा वह सहायता मिलती है कि उनकी सफलता की पराकाष्ठा हो जाती है। जैसा इनके द्वारा बाह्य जगत प्रभावित होता है वैसा ही अन्तर्जगत् भी।

बाजा कितनी ही मधुरता से क्यो न बजता हो, किन्तु उसमें वह तन्मयता नहीं होती जितनी उस समय होती है जब उसके साथ मधुर संगीत भी होता हो। यदि यह मधुर संगीत भावमय हो तो क्या कहना! वह तो बिल्कुल तन्मय कर देता है। उस समय देहाध्यास तक जाता रहता है। ऐसा क्यो होता है? मैं यह बतलाने की चेष्टा करूँगा।

धन्यात्मक और वर्णात्मक शब्दों के प्रभाव के विषय में ऊपर लिख आया हूँ। जिस समय कोई सुंदर बाजा बजता रहता है अथवा कोई कल ध्वनि वायु में ध्वनित होती रहती है उस समय उसको कान आस्वादन करता है और उसके साहचर्य से हृदय में आनंद की एक लहर-सी उठती रहती है, किंतु उसमें सोचने, समझने, विचारने एवं मनन करने की कोई बात नहीं होती। न तो उनको सुनकर कोई विशेष भाव हृदय में उत्पन्न होता और न धीरे-धीरे बढ़कर वह प्रगाढ़ ही बनता है। समय की कोमलता, मधुरता, सरमता, रूक्षता और नीब्रता की दृष्टि से जितनी राग-रागिनियो की कल्पना हुई है उनके स्वरों में निस्सन्देह ऐसा विकास मिलता है जो हृदय में अनेक सामयिक भावों को उदित करता है। वंशी की ध्वनि जितनी विरागमयी है, वीणा की