रसकलस 12 मै परग-परग चले पारग पथो के होत थोरो-थोरो किये काम होत बहुतेरो है। खिन-खिन सूखे सूखि जात है सरित-सर छिन छिन छीजे छूटि जात धन-धेरो है। 'हरिऔध' पल-पल वीते राति वीति जात धीरे-धीरे दूर होत अवनी-अधेरी है। होत ना उवार, तो उवार कहा हैहै नाहि कत अकुलात बार-बार मन मेरो है।॥२॥ अकुलानि भरो साप-फन सहकारी भाव उर मै उफान-जैसो कत उफनत है। सारी साहसिकता क्यो सिकता-समान भई सूरता-विहीनता सूर क्यो सनत है। 'हरिऔध' धीर को तजति कत धीरता है वार-बार सुधि क्यो सिधारत अनत है। पुरु के सरिस तरु कैसे सरु होत जात गिरि-ऐसो गम्ओ क्यों हरुओ बनत है।।३।। सवैया छषि रावरी हेरि छबीली छकी सिगरे छल-छदन छोर न लगी। अलकावली लाल तिहारी लखे कुल-कानि हू ते मुख मोरै लगी। 'हरिऔध' निहारि कै नैन सुहावने देवन हूँ को निहार लगी। तरुनाई तिहारी निहारि तिया उकतान-भरी तृन तौर लगी ॥ष्टा दोहा- लरखरात पग कर कॅपत थरथरात है गात। तितनी आकुलता वहति जितना जिय अकुलात ।।५।।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/३०९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।