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४७ संचारी भाव । गिरि निज-गौरव-रूर दिखराइहै तो करि कै प्रहार काँचे-कुंभन लौं फोरिहौं । 'हरिऔध' तपि-तपि ताप जो अतुल दैहै तरनि-किरिन को तो तगा सम तोरिहौ । चितचोरि चोरि चार-सुधा को चुराइहैं तो चूर-चूर करिकै मयंक को निचोरिहौ ।। १ ।। हरिहौं कलंक-सारो कुल के कलंकिन को रखि मुख-लाली लोक-कालिमा निवारिहौं । कलह-ललक को ललकि लह गारि लैहौ बद को सुधारि बदी-हृदय बिदारिहौं। 'हरिऔध' करिकै मिलाप है सबल जैहौं फैली फूट पापिनी को उर फारि डारिहौं । उघरि-घरि जाति-वैर को पछारि दैहौं कचरि-कचरि कै कचूमर निकारिहौ ।। २ ।। दोहा- विविध उत्पात जो नेकौ नाहिं सकात । तो मन कत विललात तू लगे लोक की लात ॥ ३॥ हम कैसे इनको नहीं मूदि रखहि दिन रात । मेरे लोचन लालची रूप देखि ललचात ।।४।। लंगर को संकित करहिं हरहिं चपल - चित - चैन । हैं मुंह की लाली रखत लाल-लाल मम-नैन ।। ५ ।। कैसे नहि फरकै अधर बंक बने नहिं भौह । अकलंकित-चित होत नहि करत कलंकित सौह ।।६।। करत 1