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परमात्मा को रस कहा गया है, जैसे ‘रसो वैस’। जल को भी रस कहते हैं, इस तरह रस का प्रयोग बहुत अर्थों में देखा जाता है।

जैसे रस शब्द अनेकार्थक है उसी प्रकार उसकी रसन-प्रणाली भी भिन्न-भिन्न है। कान ने जैसे मधुर बातों को सुना, ऑखों ने जिस प्रकार मयक को रस बरसते देखा, जीभ ने जिस प्रकार फलों के अथवा खट्टे-मीठे पदार्थों के रस को चखा――उन सब का प्रकार एक नहीं अलग-अलग है। इससे आस्वादन-प्रणाली की भिन्नता स्पष्ट है। साहित्य मे जैसे रस शब्द का ग्रहण इन सबों से भिन्न दूसरे ही अर्थ मे होता है उसी प्रकार उसकी व्यापकता भी अधिक है और उसके आस्वादन का ढंग भी विलक्षण।

रस के साधन

शब्द्दो प्रकार का होता है, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। जिस समय विमुग्धकरी वशी वजती रहती है अथवा कोई सुकठ पक्षी गान करता रहता है उस समय भी हमारे कानों तक उनकी लहर पहुँचती रहती है, परन्तु उनमें झकार मात्र होती है, वर्णविन्यास नहीं होता। अतएव ऐसे शब्द को ध्वन्यात्मक' कहते हैं, क्योंकि वह ध्वनि पर ही अवलम्बित होता है। दूसरा वर्णात्मक शब्द वर्ण-विन्यास-युक्त होता है। एक वर्ण-विन्यास व्यक्त और दूसरा अव्यक्त होता है। जैसे ऑय, वॉय, सॉय-शब्द वर्ण-विन्यास-युक्त हैं, किन्तु इनका कोई अर्थ नहीं, अतएव ये अव्यक्त हैं। जब हम कहेंगे ‘आप कृपा करके आइये’ तो यह व्यक्त हो जावेगा, इसलिये कि इसके वर्षों का कुछ अर्थ है। ध्वन्यात्मक शब्दो से व्यक्त वर्णात्मक शब्द अधिक प्रभावशाली और उपयोगी होता है।

ध्वन्यात्मक शब्दों में कितना आकर्पण है यह अविदित नहीं। वाद्यो का मधुर वादन, पक्षियो का कलकूजन, कमनीय कंठों का स्वर, किनना हृदय-विमोहक है, यह सब जानते हैं। शेख सादी कहते हैं――