रसकलस ३४ 'हरिऔध' होति है सरीर मॉहि पीर धनी पोरे परे ऐसे मानो पान-दल पके हैं। कुपथ विपथ की कथानहू कहहिँ नोहिं चले कौन पथ क्यो पथिक ऐसे थके हैं ॥१॥ सवैया- मुख पै श्रम के कन छाये अहैं खुलि गालन पै अलकै हैं परी । सिथिलाई भई सब-अगन मैं कुम्हिलाई लसै मनों फूल-छरी ।। निरखो 'हरिऔध' चहूँघा लखै अलबेली अजौं अलसान-भरी । मन-मारे सहारे तमालन के बन-बीथिन में थकी प्यारे खरी ।।२।। दोहा- श्रोस-भरित-तम-पात लौं सेद-सलिल-मय-गात । बतरावत है विपथनात थकित-पथिक की बात ॥३॥ विधु-बदनी के बदन पे है विलसत श्रम-बिंदु । किधौं सुधा-सीकरन-मय है राका-निसि-इंदुः ॥ ४॥ सेट सवै कर पग कॅपे बने सिथिल-तन छाम । तजत काम वाग नहीं तऊ आपनो काम ॥५॥ मलिन वनै छिदि भिटि नुचं श्रम-कर ते तन-ग्रंथ । छोरत नहिं पूरी पथिक पय रुकेहूँ पंथ ।।६।। जिसमें मोह के साथ आनट का मिश्रण हो, उम दशा को 'मद' कहते हैं, मद-पान इसका साधन है । इसके लक्षण अनर्गल प्रलाप, अनुचित बर्ताव, आरक्त नयन, नुसकान में विशेष मधुरता, वक्राक्ति म रमणीयता यादि हैं। किसी-किसी मद सचारी में घन, यौवन रूपादि के अभिमान (मद ) को भी माना है ।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।