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रसकलस stic कवित्त- कुसुमाकर सदा ना बनत कुसुमाकर बारिद सदैव बारिधारा ना वहत हैं। सव दिन ललित दिखात नाहि लोनी लता लहलहे तरु ना सदैव उलहत हैं।' 'हरिऔध' कोन काल-कवलित होत नाहिं सदा कल-नाद कल-नादी ना लहत हैं । फली-फूली, वेली फूली-फली हो लखात नाहिं फूल-फूले फूलहूं न फूले ही रहत है ॥ १ ॥ गारी दै दै गजब गुजारत गरीवन पै ऐसो मन गौरव गुमान गरस्यो परे । लोभ बढ़े पूजित पिता औ प्यारे तात हूँ को प्रान लेत तनकौ न प्रीति परस्यो परै ।। सरवस और को हरत 'हरिऔध' भाख सदा उर सौगुनो सनेह सरस्यो परे । जीवन अदीरघ भयेहू देखो देहिन मैं कैसो दोह-दुसह-दिमाग दरस्यो परै ॥२॥ दौरि-दौरि दीनता दिखावत दिमागिन को दीह-दुख होत है दया-निधि के टेरे मैं। आपनी भलाई को भरोसो भूतभैरव सो तेरो भाव होत भूत-भावन न मेरे मैं ।। 'हरिऔध' तीनो लोक प्रकट-प्रताप तऊ कैसहूँ न पूरन-प्रतीति होति तेरे में। सूरज उगेहे तम चूमत चहूँघा नाथ मृमत न मोकी श्रॉखि पात उजेरे में ॥३॥