स्थायी भाव रिसहूँ में सरसत रहत बरवस वनत रसाल । ललना-लोचन लाल है लालहिं करत निहाल ॥७॥ ५-उत्साह शूरता, दान और दया से उत्पन्न हुई प्रबल इच्छा के आविर्भाव को 'उत्साह' कहते हैं। बल, विद्या, प्रताप, दयालुता, दान-सामर्थ्य, कार्यकारिणी शक्ति और धर्म-उद्रेक इसके आधार है। कवित्त--- जागि-जागि केहूँ जे न जागहि जगाइ तिनै सूखी धमनीन मैं रुधिर-धार भरिहौं । सुधरि सुधारि कै समाजहि उधारि हौं परम-अधीरता निवारि धीर धरिहौं । 'हरिऔध' उवरि उवारि वरिहौ विभूति वीरता अवीरता अवनि मैं वितरिहौं । धोइ देही कुजन-मयंक को कुअंक-पंक जाति-भाल-अंक को कलंक सब हरिहौं ।। १ ।। बास-हीन विरस असंयत सनेह कॉहिं वासवारे-सुमन-सुबास सो वसैहो मैं । सकल सुपास सुख-संचन कसौटिन पै रंच न सकैही चाव-कंचन कसैहों में ।। 'हरिऔध' जाति-हित करि हारिहौं ना कवौ वैर-धूरि कॉहिं वारि-पात कै नसैहौ मैं । विविध विरोध-वारिनिधि बारि को सुधारि बारिधर की-सी बारिधारा बरसैह्रौं मैं ॥२॥
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