१३ स्थायी भाव कवित्त- छन-छन छीजत न देखहिं समाज-तन हेरहि न विधवा छ टूक होत छतियान । जाति को पतन अवलोकहिं न आकुल है भूलि ना विलोकहिं कलंकी होत कुल-मान ।। 'हरिऔध' छिनत लखहि ना सलोने लाल लुटत निहारहिं न लोनी-लोनी ललनान । खोले कछु खुली पै कहाँ हैं ठीक-ठीक खुली अधखुली अजौँ है हमारी खुली अखियान ।। १ ॥ काहू की ठगौरी परे ठग है गये हैं सग वन गये परम विमुख मुख कौर कौर । जाति को है ठोकर पे ठोकर लगति जाति काठ सी कठोरता पुकारति है और-और ।। 'हरिऔध' करत कठिन ठकठेनो काल ठुकराई ठकुराइने हूँ ठाढ़ी पौर-पौर । है न वह ठाट वह ठसक न वह टेक ठिटके दिखात ठूठे ठाकुर हैं ठौर-ठौर ॥२॥ तावा के समान है तपत उर तापवारो गरम हमारो लोहू सियरो भयो नहीं। पीर लहि मुख पियरानो पीर वारन को बदन दिखात ती पियरो भयो नहीँ ।। 'हरिऔध' जोहि-जोहि निरजीव जीवन को जीवन-विहीन मीन जियरो भयो नहीं। जाति टूक-टूक भई टूको ना मिलत माँगे टूक-दूक तऊ हाय हियरो भयो नहीं ॥३॥
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