(७ स्थायी भाव सबैया- पौर-परोसिनी पै पति को सुनि प्यार-पगी कबौँ टोकत नाहीं। भीतर-भौन अलीनहूँ मैं परे कामहूँ के कछु ठोकत नाहीं।। रोस किये 'हरिऔध' के बाल वे बैन सुधा-सने रोकत नाहीं। लाज-भरी अखियान उठाइ मयंकहूँ को अवलोकत नाही ॥५॥ (ख) मध्यम रति अकारण परस्पर प्रीति को 'मध्यम रति' कहते हैं। इसमें मैत्रीभाव की प्रधानता होती है। इसका स्वार्थ तरल और एकदेशीय होता है । कवित्त- दोऊ दुहूँ चाहँ दोऊ दुहुँन सराहै सदा दोऊ रहें लोलुप दुह्न छवि न्यारी के । एकै भये रहँ नैन-मन-प्रान दोहेन के रसिक बनेई रहैं दोऊ रस-क्यारी के ।। 'हरिऔध' केवल दिखात द्वै सरीर ही है नातो भाव दीखे हैं महेस-गिरिबारी के। प्रानप्यारे चित में निवास प्रानयारी रखै प्रानप्यारो बसत हिये मैं प्रानप्यारी के ।। ६॥ सवैया- चूमत पी को कपोल तिया तिय को पियहूँ अधरा-रस चाखै। अंक गहै 'हरिऔध' को कामिनि पी नवला को भुजाभरि भाखै॥ आपने जीवन-प्रान-समान लला को लली करिबो अभिलाखे। लालहू नेहमयी नव बाल को आखिन की पुतरी करि राखे ।।७।। (ग) अधम रति जिस प्रीति में स्वार्थ की प्रधानता होती है उसे 'अधम रति' कहते हैं। सासारिक व्यवहार में यही प्रीति अधिकतर सर्वत्र दृष्टिगत होती है।
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