यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२१६ तुलसीदासजी की वत्सलरस-संवधी रचनाएँ अल्प नहीं हैं, और इतनी उच्च कोटि की है, कि उनकी समानता करनेवाली कविता अन्यत्र दुर्लभ है। वत्सलरस के साहित्य के गौरव और महत्त्व के लिये मैं उनका यथेष्ट समझता हूँ, क्योकि वे जितनी हैं उतनी ही अलौकिक मणि समान हिदी समार-क्षेत्र को उद्वासित करनेवाली हैं। आजकल बाल- साहित्य के प्रचार के साथ वत्सलरस की विभिन्न प्रकार की सरस रचनाओं का भी प्राचुर्य्य है। ज्ञात होता है, कुछ दिनों में शृगार, हास्य, वीर आदि कतिपय वडे-बडे रसों को छोड़कर इस विषय में भी वात्सल्य रस अन्य साधारण रसों से आगे बढ़ जावेगा। यदि इस एक न्यूनता स्वीकार कर ले तो भी अन्य व्यापक लक्षणो पर दृष्टि रखकर मेरा विचार है कि वत्सल की रसता सिद्ध है, और उसको रस मानना चाहिये। मतभिन्नता के विपय मे कुछ वक्तव्य नहीं, वह स्वाभाविक है। 'हरिऔध' अग की