२१५ और स्पष्ट है, जिनकी गणना नवरस से होती है। हास्य रस का स्थायी भाव हास है; हास्य मनुष्य-समाज तक परिमित है; पशु-पक्षी-कीट-पतंग नहीं हँसते, किंतु वात्सल्य रस से ये जीवजंतु भी रहित नही, चींटी तक अपने अंडे-बच्चों के पालन में लगी रहती है, मधुमक्खियाँ तक इस विषय मे प्रधान उद्योग करती दृष्टिगत होती हैं। यदि वनस्पति-संबंधी आधुनिक आविष्कार सत्य हैं, और उनमें भी स्त्री पुरुप मौजूद है, तो वत्स और वात्सल्य भाव से वंचित वे भी नहीं हैं। फिर भी 'हास्य' को रस माना गया, और 'वात्सल्य' इस कृपा से वंचित रहा। वीभत्स में भी न तो वत्सल इतनी रसता है, न व्यापकता, न सचरणशीलता; फिर भी वह नव रस मे परिगणित है और "वत्सल' को वह सम्मान नहीं प्राप्त है । बीभत्स रस भी मानव-समाज तक ही परिमित है । इतर प्राणियों मे उसके जोन का अभाव देखा जाता है, इस दृष्टि से भी वत्सल की समानता यह नही कर सकता, तथापि वह उच्च आसन पर आसीन है। वत्सलरस का साहित्य निस्संदेह थोड़ा है, इस विपय में वह रस- संज्ञक स्थायीभावो का सामना नहीं कर सकता। हिदी-भापा के किसी आचार्य अथवा प्रतिष्टित विद्वान् ने 'वत्सल' को रस नही माना, इस- लिये उसकी कविता साहित्य-ग्रथों में प्रायः दुप्प्राप्य है। केवल बाबू हरिश्चंद्र ने उसको रस माना है, कितु उनकी भी इस रस की कोई कविता मुझे देखने मे नहीं आई। जितने हिंदी भापा मे रस-संबंधी ग्रंथ है, उन सबमें आवश्यकतावश नव रस की कविता मिलती है, कितु यह गौरव वत्सल को नहीं मिला । साहित्य से किसी भाव की व्यापकता का पता चलता है, क्योकि इससे जनसमुदाय की मानसिक स्थिति का भेद मिलता है। अतएव यह स्वीकार करना पड़ता है, कि इस विषय में वत्सल रस उतना सौभाग्यशाली नहीं है। फिर भी मैं यह कहूंगा कि हिंदी संसार मे जितना साहित्य वात्सल्य रस का पाया जाता है, वह अद्भुत, अपूर्व और वहुमूल्य है। कविशिरोमणि सूरदास और कविचूड़ामणि गोस्वामी
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