अनुकरणीय सफलता उपाध्यायजी को खड़ी बोली के प्रयोग में मिली है, प्राय वैसी ही ब्रजभाषा के प्रयोग में भी प्राप्त हुई है। सच्चो कवि-प्रतिभा वही है कि जो समान सफलता के साथ काव्य-कला के भिन्न-भिन्न अगों में पृथक् पृथक् रीति-नीति (शैली) और भाषा के द्वारा कृतकार्य हो सके।
साराश यह है कि भाषा, भाव, कला-कौशल आदि सभी दृष्टियों से उपाध्याय जी का यह ग्रंथ-रत्न वस्तुत अपने रंग-ढग का अप्रतिम और परम प्रशसनीय ठहरता है। सभव है कि किसी को इसके मयंक अंक में कहीं कुछ कालिमा भी दिखलाई पड़े, किंतु यह इसकी कमनीय- कौमुदी-काति के समक्ष निष्पक्ष रूप से देखने पर क्या होगी? कुछ नहीं, केवल दृष्टि-भ्रांति। हॉ, जलौका-प्रवृत्ति वाले भले ही व्यर्थ के लिये छिद्रान्वेषण कर सकते हैं और नीरस जन स्वार्थ आदि किसी विशेष कारण से निन्दा तक कर सकते हैं, इसके लिये स्वयं उपाध्यायजी ही ने कह दिया है――
‘हरिऔध’ कैसे ‘रसकलस’ रुचैगो ताहि,
जाको उर रुचिर रसन से न सोहैगो।
मूलग्रंथ पर इस प्रकार विहंगम-दृष्टि के द्वारा प्रकाश डाल चुकने पर हम ग्रंथ के पूर्वार्द्ध का भी, जो भूमिका के रूप में हैं, कुछ संक्षिप्त परिचय दे देना चाहते हैं। यह पूर्वार्द्ध भी अपनी विशिष्ट महत्ता और सत्ता रखता है और अनिवार्य रूप से अवलोकनीय, विचारणीय-और ग्रहणीय या अनुसरणीय है। इसमें व्रजभाषा तथा उसके काव्य पर प्रायः जो अनर्गल आक्षेप किये जाते हैं और जिन्हें प्रमादिक, तर्क प्रमाण-शून्य, ईर्पा द्वेप-जन्य तथा निराधार या निरर्थक समझ कर ब्रजभाषा-प्रेमी विद्वान् उपेक्षा के ही साथ देखते-सुनते आये हैं उनके उत्तर बड़ी ही सतर्कता, योग्यता और गंभीरता से दिये गये हैं और ब्रजभाषा की महान् महत्ता-सत्ता का पांडित्यपूर्ण प्रतिपादन किया गया है। बड़ी ही न्यायप्रियता, निष्पक्षता तथा युक्ति के साथ उसके पक्ष का विपक्ष-वृंद