२१४ बाल विनोद मोद मन मोह्यो भगति ताप दिखायो। सूरदास प्रभु जसुमति के सुख सिव बिरंचि वीरायो । शिव विरंचि वावले बने हों या न बने हों, किंतु महात्मा सूरदासजी का बड़ी ही सजीव भाषा में सहज बाल-स्वभाव का चित्रण अत्यंन मार्मिक और हृदयग्राही है। एक-एक चरण में विमुग्धकारी भाव हैं और उनको पढकर रसोन्माद-सा होने लगता है। चमत्कार के लिए इतना ही बहुत है। शिव विरंचि का उन्माद तो बड़ा ही चमत्कारक है, सभव है हमारे दिव्यचक्षु महाकवि ने इसको अवलोकन किया हो । बालक कृष्ण की विचित्र लीला क्या नहीं कर सकती । अबहि उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई। सुनु मैया । तेरो सौ करौं याकी टेव लरन की सकुच वैचि सो खाई ॥ या ब्रज मैं लरिका घने हौं ही अन्याई। मुहलाए मूंहहि चढ़ी श्रतहु अहिरिन तोहि सूधी कर पाई ।। सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई । तुलसिदास ग्वालिनि ठगी, आयो न उतर कछु कान्ह ठगौरी लाई ॥ अहीरिन ने भी अच्छे घर बैना दिया था, वेचारी दो दो बार उलाहना देने आई, पर फिर भी उसीको मुंह की खानी पडी। उसने मुँह की ही नहीं खाई, भोले-भाले वालक द्वारा ठगी भी गई। दूध दही तो गया ही था, उल्लू भी वनी, जवाव तक न सूझा । बालक कृष्ण ने ऐसी वात गढ़ीं कि यशोदादेवी को मुसकाना ही पडा । इन गढी वातों को सुनकर किसके टॉत नहीं निकल आयेगे । हमारे कृष्ण भगवान् ने चाहे जो किया हो, किंतु गोम्वामी तुलसीदासजी की लेखनी का चमत्कार इस पद्य मे चमत्कृतकर जो कसौटी मैंने वात्सल्य रस के कसने की ग्रहण की थी, मेरे विचार मे उमपर कस जाने पर वात्सल्य रस पूरा उतरा। 'इसके अतिरिक्त जव मैं विचार करता हूँ तो वात्सल्य रम उन कई रसो से अधिक व्यापक है।
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