२१३ स्वयं अवतारी बालक कृष्ण भी नहीं। अपने मुख को आप कोई कैसे देख सकता है, जब तक विमल बोध का दर्पण सामने न होवे । चमत्कार के विषय में तो वात्सल्य रस वैसा ही चकितकर है, जैसा कि स्वयं बालक । जब बालक-मूर्ति ही चमत्कारमयी है तब उससे संबंध रखनेवाले भाव चमत्कृतकर क्यो न होगे! बालक का जन्मकाल कितना चमत्कारमय है और उस समय चारों ओर कैसा रस का स्रोत उमड़ पड़ता है, इसका अनुभव प्रत्येक हृदयवान् पुरुप को प्राप्त है । उस समय के गीतो के गान में जो मंकार मिलती है, सोहरो मे जो विमुग्धकरी ध्वनि पाई जाती है, वह किसी दूसरे अवसर पर श्रुतिगोचर नहीं होती। संतान ही वश-वृद्धि का आधार, पिता का आशास्थल, माता का जीवन- सर्वस्व और संसार-वीज का संरक्षक है। उसीमे यह चमत्कार है कि जैसी ममता उसकी पशु पक्षी कीट पतंग को होती है वैसी ही देवता मनुष्य और दानवो को भी। उसकी लीलाएँ जितनी मनोरंजिनी हैं, जितनी उसमें स्वाभाविकता और सरलता मिलती है, मानव जीवन की किसी अवस्था मे उतनी मनोरंजन आदि की सामग्री नहीं पाई जाती । ये बाते भी चमत्कारशून्य नहीं, तो भी नीचे मैं वात्सल्य रस के कुछ पद्य देता हूँ। आप देखें, इनमें कैसा स्वभाव-चित्रण और कविता-गत- चमत्कार है। बालक जैसे सरल और कोमल होते हैं, वैसे ही उनके भाव और विचार भी सरल और कोमल होते हैं, उद्धृत कविताओ मे आपको उनका बड़ा ही मनोहर स्वरूप दिखलाई पड़ेगा। मैया ! मैं नाहीं दघि खायो । ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो । देख तुहीं छोके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो । तुही निरखि नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो । मुख दघि पोंछि कहत नॅदनदन दोना पीठ दुरायो । डारि साँट मुसुकाइ तबहि गहि सुत को कठ लगायो।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/२२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।