२१२ न होगा । गोस्वामी तुलसीदासजी का इसी भाव का एक बड़ा सुंदर पद है, जो अपने रंग में अद्वितीय है- माता लै उछग गोबिंद मुख बार बार निरखै। पुलकित तनु श्रानद घन छन छन मन हरखै । पूछत तोतरात बात मातहि जदुराई। अतिसय सुख जाते तोहि मोहि कहु समुझाई । देखत तव वदन कमल मन अनद होई। कहै कौन ? रसन मौन जाने कोई कोई । सुन्दर मुख मोहि देखाउ, इच्छा अति मोरे । मम समान पुन्यपुज बालक नहिं तोरे । तुलसी प्रभु प्रेमबस्य मनुज रूपधारी। बाल-केलि-लीला-रस ब्रज जन हितकारी। तुतलाकर लीलामय ने माता से पूछा, तुमको अपार सुख किस है ? माता ने कहा-तेरा कमलवदन देखकर मन आनंदित होता है कैसा आनद होता है, इसको कौन कहे, रसना तो चुप है, इसको कोई कोई जानता है । लीलामय ने कहा-वह सुन्दर मुखड़ा मुझे दिखला | माता ने कहा -मेरे समान तेरा पुण्यपुज कहाँ । यहाँ पर ब्राह्मानंद के भी निछावर कर देने को जी चाहता है । ससार में बालक के लोफन के आनद का अनुभव माता ही को हो सकता है। और कोई ससार मे इस अनुभव का पात्र नहीं, पिता भी नहीं। वालक-कृष्ण भो पित ही के वर्ग का है, इसीलिये माता ने कहा तेरा पुण्यपुंज ऐसा कहाँ फिर जो आनंद ऐमा अलौकिक और अनिर्वचनीय है, कि जिसके रसना भी नहीं कह सकती, जिसको कोई-कोई जानता ही भर है, किंर कह वह भी नहीं सकता, उसे वे कैसे कहें । यही तो ब्रह्मानद है । जिस की अधिकारिणी कोई कोई यशोदा जैसी भाग्यशालिनी माता ही है मुख अव
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