२०६ सरित्, - छवि-अवलोकन आदि अनुभाव, और हर्प सवारी भाव के मिलन से जिस रस का आस्वाद आस्वादनकारिणी को हुआ है, जो पद्य के प्रति पदो मे छलक रहा है, क्या पानक रस के आस्वाद से कहीं विलक्षण नहीं है ? क्या विमुग्धता का स्रोत उसमें, नहीं वह रहा है ? सरोवर आदि में लहरें उठती ही रहती हैं किंतु सब लहरें न तो स्पष्ट होतो हैं, न यथातथ्य दृष्टिगोचर होती हैं। यही बात मानस- तरंगों अथवा हृदय के भावो के विपय में भी कही जा सकती है। अनेक लहरें हृदय मे उठती है, और तत्काल विलीन हो जाती हैं। किनु कुछ भावों को लहरें ऐसी होती हैं, जो स्पष्ट नलक जाती हैं, और उनमें स्थायिता भी होती है। रस-प्राप्त भाव ऐसे ही होते हैं। वात्सल्य- रस भी ऐसा ही है। सहृदय शिरोमणि सूरदानजी के निम्नलिखित पद्य में उसका बड़ा सुंदर विकाश है । अंतिम वाक्य 'कीन्हें सात निहोरे' ने तो इस पद्य में जान डाल दी है- जेंवत नंद कान्ह इक ठौरे । कछुक खात लपटात दुहूँ कर बालक हैं अति भोरे । बहो कौर मेलत मुख भीतर मिरिच दसन टुक तोरे । तीछन लगी नयन भरि आए रोवत बाहर दौरे । फॅकति वदन रोहिनी माता लिये लगाइ अकोरे । सूर स्याम को मधुर कौर दे दीन्हें सात निहोरे । वालक समान हृदयवल्लभ कौन है ? वही तो कलेजे की कोर है, वही तो कलेजे का टुकड़ा (लख्त-जिगर) है, फिर उसके भोले भाले भाव हृदय में प्रवेश क्यों न करेंगे। बालको के समान हृदयविमोहन, संसार में कौन है ? कुसुमचय भी बड़े मनोहर होते हैं, कितु वालको जैसी सजीवता उनमें कहाँ। देखिये हृदय-प्रविष्ट आव की सरसता! गोस्वामी जी निम्नलिखित पद्य लिखकर, मैं तो कहूँगा कि, रस की रसता भी छीने लेते हैं-
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