२०५ . यह उदगार है। ब्रह्मानंद का अनुभव यही तो है । यही है वह भक्तिभार जिसे पाकर कुर्वेति कृतिनः केचिञ्चतुर्वर्ग तृणोतमम्' अब रही चमत्कार की बात । भक्ति का चमत्कार और विलक्षण है। भक्तिरस के रसिक ही के विषय में यह कहा गया है- "न पारमेष्ठयं न महेंद्रधिष्ण्व न सार्वभौम न रमाधिपत्यम् । न योगसिद्धीरपुनर्भव वा वाञ्छन्ति यत्पादरज प्रपन्नाः ॥"-भागवत 'परमात्मा के चरणरज के प्रेमिक न तो कैलाश की कामना करते हैं, न स्वर्ग की, न सार्वभौम की, न राज्य की, न योगसिद्धि की, न अपुनर्भव की ।' कैसा अलौकिक चमत्मार है । और सुनिये भगवान उद्धव से क्या कहते हैं- "न साधयति मा योगो न साख्य धर्म उद्धव । न स्वाव्यायस्तपत्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता !!"-भागवत 'न तो मैं योग से मिलना हूँ न साख्य धर्म से, न म्वाध्याय से. तप से; लोग मुझे अर्जित भक्ति से ही पा सकते है। ऐसा चमत्कार किस रस का है ? और भी सुनिये । भगवद्वाक्य है- "यकर्मभिर्वतपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत् । योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि । सर्व मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतञ्जसा।"-भागवत 'जो कर्म से, तप से, ज्ञान से, वैराग्य से, योग से, दान से. धर्म से एवं दूसरे श्रेयो से पाया जा सकता है, वह सब मेरा भक्त एक भक्ति- योग द्वारा ही पा जाता है।' भक्ति की कैसी अपूर्व चमत्कृति है। वैदिक काल से प्रारंभ करके पौराणिक काल तक का जितना साहित्य है. उसके बाद के जितने काव्य अथवा अन्य धार्मिक किवा ऐतिहासिक ग्रथ हैं, वे समस्त भक्ति के चमत्कार से भरे पड़े हैं। वैदिक साहित्य के प्राकृतिक देवतों और ईश्वर की भक्ति का चमत्कार ही संसार के ज्ञान- --
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