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उक्त विशेष प्रयोग से बड़ी विलक्षणता एवं विचक्षणता अनुप्रासों के रूपों में प्रतिभात होती है।

शब्दों के भिन्न-भिन्न प्रकाराकार वाले प्रयोगों से रचना-कला में रचयिता की प्रकामाभिराम पटुता प्रकट होती है। यह दिखलाने का भी पूरा प्रयत्न किया गया है कि शब्द कितने भिन्न-भिन्न अर्थो में कितने भिन्न-भिन्न रूपों या आकाशे-प्रकारो से प्रयुक्त किया जाता या जा सकता है, इस कार्य में सफलता भी बहुत हुई है। भाषा को मुहावरेदार रखने का भी अच्छा प्रयत्न किया गया है। इससे भाषा में लालित्य के साथ ही साथ प्रसादगुण की भी वृद्धि हो गई है। शब्द-संचयन और संगुंफन भी बड़ा ही संयत और सराहनीय है, जिससे प्रकट होता है कि उपाध्यायजी ने शब्द-संग्रह में बड़ा स्तुत्य श्रम किया है। वस्तुतः ऐसे ही उच्चकोटि के कवियों का यह काम है जो प्रगाढ़ पांडित्य और भाषाधिपत्य के सूचित करने में सर्वथा समर्थ होते है। कवि, यदि यथार्थ कहा जाय, एक कुशल शब्द-संग्रहकार है, शब्दो में ही उसकी शक्ति*, अनुरक्ति और भक्ति रहती है, और रहना भी चाहिए। जितनी ही सफलता उसे शब्द संग्रह में प्राप्त होगी उतनी ही सफलता उसे रचना-कार्य में भी प्राप्त हो सकेगी। कुछ लोगो का कहना है कि शब्दों के चुनाव और कला कौशल के साथ संगठित करने से रचना की उस स्वाभाविकता को, जो प्रधान और मुख्य है, धका पहुंचता है और वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। कहीं किसी अंश में यह ठीक हो सकता है, किन्तु सवत्र इसे चरितार्थ मानना वास्तव में रचना-कला (काव्य-कला) और कवि कर्म-कौशल के मर्म का न समझना ही हैं। काव्य में वैचित्र्य या वैलक्षण्य का ही पूरा ध्यान रखकर शब्द-चयन और पद-संगुंफन अथवा वाक्य-विन्यास के संगठन का कार्य करना चाहिए। हम कह सकते हैं कि जैसी स्तुम्य एवं चिरस्मरणीय तथा


  • 'कविहिँ अरथ आखर बल सौचा'—तुलसीदास।