२०२ " 'बाद मरने के हुआ मनसूर को भी जोशे इश्क । खून कहता था अनल हक्क दार के साया तले ।' कोई सामने आये और बताये कि दूसरे किस रस का आस्वाद ऐसा है। रस की और विशेपता क्या है ? यह कि वह स्पष्ट झलक जाता है, हृदय में प्रवेश कर जाता है, सर्वांग को सुधारस सिचित बनाता है और अन्य वेद्य विपयों को तिरोहित कर देता है। अन्य रसो पर भी यह लक्षण घटित हो सकता हैं, दूसरे रसो में भी यह विशेषता पाई जा सकती है, किंतु भक्ति रस मे तो इस लक्षण और विशेषता की पराकाष्ठा हो जाती है, वरन् कहना तो यह चाहिये कि भक्ति रस में ही इन विशेषताओं की वास्तविक सार्थकता होती है। जब भक्ति अन्य वेद्य विपयो को तिरोहित कर देती है, तभी तो वह स्पष्ट मलक जाती है, तभी तो हृदय में प्रवेश करती है और तभी तो सर्वांग सुधारस-सिंचित होता है। यदि ऐसा न होता तो यह क्यों कहा जाता- 'प्रेम एव परो 57." "God is love, love is God' ? PĪT STIFTATET PERT कहते 'जेहि जाने जग जाय हेराई' और वेद्य विपयो की बात ही क्या जब भक्ति रस के प्रभाव से 'रसो वै स' का ज्ञान हो जाता है, तो मसार म्वय तिरोहित हो जाता है, स्वय खो जाता है, क्योकि जिसको उसकी खबर हो जाती है उसको स्वय अपनी खबर नहीं रहती। “आँरा कि बबर शुद विवरशवाज नयामद' । श्रीर तो और, बेचारी मुक्ति को भी कोई नहीं पूछता । जब भक्ति हृदय मे प्रवेश कर गई तो मुक्ति को उसमे न्यान कहाँ। उमका तिरोधात तो हो ही जावेगा- "गम-उपासक मुक्ति न लेही । तिन कहँ राम मक्ति निज देहीं । श्रीमदभागवत का भी यही वचन है । सुनिये- "न किचित साध्या घीरा भत्ता घेकातिना मम । वाछन्त्यपि दत्तं कैवल्यमपुनभवम् ॥" मया
पृष्ठ:रसकलस.djvu/२१७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।