- २०१ क्वचिंद्रुदन्त्यच्युतचिंतया क्वचिद्धसंति नंति वदत्यलौकिकाः । नृत्यति गायत्यनुशीलयंत्यज भवंति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥ "अच्युत का चिंतन करके कभी रोते हैं, कभी हँसते, आनंदित होते और अलौकिक वाते कहते हैं। कभी नाचते, गाते, भगवान् का अनुशीलन करते और परमात्मा को प्राप्त कर संतोष लाभ करने के उपरांत मौन हो जाते हैं।" न्या उसी रस का प्याला पीकर भक्तिमयी मीरा ने यह नहीं गाया मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई । जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई । साधुन सँग वैठि बैठि लोकलाज खोई । अब तो बात फैल गई जाने सब कोई । सुवन जल सीचि सींचि प्रेम वेलि बोई । मीरा को लगन लगी होनि हो सो होई ॥ क्या उसी रस की सरसता के स्वाद ने उनके समस्त राजभोगो को भी नीरस नहीं बनाया था क्या उसी रस का भांड लेकर भक्ति-अवतार गौरांग ने चंगाल प्रांत को प्रेमोन्मत्त नहीं बनाया ? स्वयं उस रस से सिक्त होकर क्या उन्होने वह रस-सावन नहीं किया, जिसमें भारत का एक विशाल प्रांत आज भी निमग्न है ? आज से चार सौ वर्ष पहले इस पुण्यभूमि ने जो स्वर्गीय गान सुना, जो त्रिलोकमोहन नर्तन देखा, जो अभूतपूर्व भक्तिउद्रेक 'अवलोकन किया, क्या वह उसी रस की महत्ता नहीं थी ? क्या उसी रस से सरावोर मंसूर ने सूली पर चढ़कर यह नहीं पुकारा- 'यह उसके वाम का जीना है आए जिसका जी चाहे ।' क्या उस रस के रोम-रोम में, रग रग मे भीनने का ही यह निरूपण नहीं है- ? 7
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