२०० . - अतर पट दे खोल सब्द उर लावरी । दिल विच दास कबीर मिले तोहि बावरी ॥ इन पक्तियो मे कैसा आत्मनिवेदन है, उसे बतलाना न होगा। प्रत्येक शब्द में वह व्यजित है। आत्मनिवेदन का अर्थ आत्मोत्सर्ग लीजिये, चाहे आत्मदशानिवेदन, दोनों ही भाव उनमें मौजूद हैं। अतएव उनमें भक्ति रस का प्राचुर्य स्पष्ट है । काव्य-प्रकाशकार ने रस का जो व्यापक ओर मानसिक अवस्था-प्रदर्शन संवधो लक्षण लिखा है, भक्ति में वह जितना सुविकसित पाया जाता है, अन्य रस में उसका उतना विकाश नहीं देखा जाता । वे लिखते हैं-'पानक रस के समान रस को आस्वाद्य होना चाहिये' 'उनके कहने का भाव यह है कि जैसे पीने का रस चीनी, दूध केवड़ा, इलायची आदि भिन्न-भिन्न पदार्थों से बनकर उन सबसे पृथक् एक विचित्र स्वाद रखता है, और अधिक स्वादिष्ट भी होता है, उसी प्रकार, विभावादि के मिश्रण से जो रस बनता है, उसका आस्वादन भी अपूर्व और विलक्षण होना चाहिये । भक्ति में यह गुण और रसों से अधिक पाया जाता है। जब भगवद्-प्रेम विपयक स्थायी भाव, परमानंद- स्वरूप परमात्मा श्रालवन विभाव को पाकर पुलक, अश्रुपात आदि अनुभावो एव हर्प, आवेग, विवोध, औत्सुक्य आदि संचारी भावों के सहारे भक्ति में परिणत होता है, उस समय भक्त जनो के हृदय में जिस अलोकिक रस का आविर्भाव होता है, वह कितना लोकोत्तर तथा देवी विभूति सम्पन्न देखा जाता है, क्या यह अविदित है। क्या उसीके आस्वादन-जनित आमोद का वर्णन इन शब्दो में नहीं है ? "त्वत्साक्षात्करणाहादयिशुद्धाब्धिस्थितत्य मे। सुखानि गोष्पदायन्त "-भागवत 'तुम्हारे साक्षात्करण आहाद के विशुद्ध समुद्र में स्थित होने के कारण मुक्तको समस्त सुख गोप्पद समान जात होते हैं।" क्या उसी रसास्वादनकारो की अद्भुत दशा का उल्लेख यह नहीं है ?- .
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