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१६६ . और इस- 57 आगे के पृष्ठो मे आप पढ़ चुके है कि कुछ रसनिर्णायको ने प्रेयास, दात, उद्धत, लौल्य, भक्ति और कार्पण्य को भी रस माना है। ज्ञात होता है कि इन लोगों का विचार भी पडितराजजी के ध्यान में था, लिये भी सबमें भक्ति को प्रधान समझकर उन्होंने उसके रस होने के विरुद्ध अपनी लेखनी चलाई। जो हो, मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि रस-निरूपण का विषय निर्विवाद नहीं हैं । जैसा श्राप लोग देख चुके, इस विपय मे भी भिन्न-भिन्न प्राचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं। हॉ, यह अवश्य है कि अधिक सम्मति नवरस सवधिनी है। जिस प्रकार यह सत्य है, उसी प्रकार यह भी सत्य है कि कुछ मान्य विद्वानो ने वात्सल्य रस को भी दसवॉ रस माना है। उनमें मुनींद्र और साहित्यदर्पणकार का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- "स्पष्ट चमत्कारक होने के कारण वत्सल को भी रस कहा गया है।" "स्फुट चमत्कारितया वत्सलं च रस विदु भारतेदु बाबू हरिश्चद्र ने भी अपने नाटक नामक ग्रंथ मे 'वत्सल' को रस माना है। उन्होन रसों के नामो का उल्लेख इस प्रकार किया है- "शृगार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, अद्भुत. बीभत्स, शात, भक्ति वा दास्य, प्रम वा माधुय्य, सख्य, वात्सल्य, प्रमोद वा आनंद ।" 'प्रकृतिवाद गला का एक प्रसिद्ध कोप है। उसके रचयिता वग भापा के एक प्रसिद्ध विद्वान हैं । वे रस शब्द का अर्थ बतलाते हुए लिखते हैं- मोजदेव ने भी अपने 2 गारप्रकाश' नामक ग्रंथ में 'वत्सल' को रम माना है और रसों की सख्या दस बतलाई है। वे लिखते है- गारवीरकरणाद्भुतदात्यरादत्रोभत्सवत्सलभयानक्शातनाम्न । प्राश्नासियुर्दशरसान् नुधियो वदति श गारमेव रसनाद्रस मामनाम• शृगार, वीर, करण, अद्भुत, हास्य, रौद्र बीभत्स, वत्सल, मयानक, और शात नामक दश रस बुद्धिमानों ने बतलाये हैं, किन्तु आस्वादन पर दृष्टि ग्वार गार ही रम माना जा सकता है। . . ।