१६५. "अथ कथमेत एव रसाः १ भगवदालबनस्य रोमाचा पातादिभिरनुभावितस्य हर्षादिभिः परिपोषितस्य, भागवतादिपुराणश्रवणसमये भगवद्भक्तैरनुभूयमानस्य भक्तिरसस्य दुरपह्नवत्वात् । भगवदनुरागरूपा भक्तिश्चात्र स्थायिभावः । न चासौ शातरसेऽन्तर्भावमईति, अनुरागस्य वैराग्यविरुद्धत्वात् । उच्यते-भक्तर्देवादि- विषयरतित्वेन भावांतर्गततया, रसत्वानुपपत्तेरिति ।" "क्या रस इतने ही है ? भगवान् जिसके आलवन हैं, रोमांच अश्व- पातादि जिसके अनुभाव हैं, भागवतादि पुराणश्रवण के समय भगवद्भक्त भक्तिरस के उद्रेक से जिसका अनुभव करते हैं, वही भगवदनुरागरूपा भक्ति यहाँ स्थायी भाव है। शांत रस में इसका अंतर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि अनुराग और वैराग्य परस्पर विरोधी हैं। कितु भक्ति देवादि रति विपय से संबंध रखती है, अतएव वह भाव के अंतर्गत है, उसमे रसत्व नही माना जा सकता।" रसगंगाधरकार पंडितराज जगन्नाथ असाधारण विद्वान् थे। वे स्वयं प्रश्न उपस्थित करते हैं कि क्या रस इतने ही हैं ? प्रश्न उपस्थित करने के उपरांत पूर्व पक्ष का प्रतिपादन बड़ी योग्यता से करते हैं। जिन विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के आधार से स्थायी भाव रसत्व को प्राप्त होता है, उसका निरूपण भी यथेष्ट करते हैं, उनकी पक्तियो को पढ़ते समय ज्ञात होने लगता है कि आप भक्ति को रस स्वीकार करेंगे, कितु उन्होंने उसको देवादि-विपयिनी रति कहकर 'भाव' ही माना ' और यह भी नहीं बतलाया कि देव-विपयक रति को रसत्व क्यो नहीं प्राप्त होता । परमात्मा का नाम रस है, श्रुति कहती है, 'रसौ वै सः' । रस शब्द का अर्थ है, 'यः रसयति आनन्दयति स रसः' । वैष्णवों की माधुर्य उपासना परम प्रिय है, अतएव भगवदनुरागरूपा भक्ति को वे रस मानते हैं । यह विषय पंडितराजजी के लक्ष्य मे था, इसलिये उन्होने पूर्व-पक्ष में उसको ग्रहण किया, कितु प्राचीन प्राचार्यों की सम्मति को प्रधान मानकर उसको भाव ही बतलाया ।
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