१६३ रस की यह परिभापा अथवा लक्षण साहित्यिक है, इससे जैसा चाहिये वैसा प्रकाश प्रस्तुत विषय पर नहीं पड़ता। काव्यप्रकाशकार ने रस की जो निम्नलिखित व्याख्या की है, वह सर्ववोधगम्य एवं मानव अवस्था की सूचक है। "पानकरसन्यायेन चळमाण : पुर इव परिस्फुरन् हृदयमिव प्रविशन् सर्वांगीण- मिवालिंगन् अन्यत् सर्वमिव तिरोदधत् ब्रहात्वादमिवानुभावयन् अलौकिक- चमत्कारकारी शृंगारादिको रसः ।" “पानक रस के समान जिनका आम्वाद होता है, जो स्पष्ट झलक जाते हृदय में प्रवेश करते, व्याप्त होकर सर्वांग को सुधारससिचित बनाते, अन्य वेद्य विपयो को ढक लेते, और ब्रह्मानंद के समान अनुभूत होते हैं, वे ही अलौकिक चमत्कारसंपन्न शृगारादि रस कहलाते हैं।" भाव किसे कहते है ? रस मे क्या विशेषता है ? ऊपर के अवतरणो को पढ़कर यह बात आप लोगो ने समझ ली होगी। वास्तविक बात यह है कि विशेप उत्कर्षप्राप्त, हृदयग्राही, व्यापक, अनिर्वचनीय आनदप्रद अधिकतर मनोमुग्धकर भाव ही रस कहलाता है। दुग्ध की स्वाभाविक सरसता और मधुरता कम नहीं, कितु अवट जाने पर जब वह अधिक गाढ़ा हो जाता है, सुरवादु मेवो के साथ जब उसमे सिता भी सम्मिलित हो जाती है, तो उसका आस्वाद कुछ और ही हो जाता है, रसों की भी कुछ ऐसी ही अवस्था है । नाट्यशास्त्र-प्रणेता कहते है- "न मावहीनोऽस्ति रसोन भावो रसवर्जितः । परस्परकृता सिद्धिस्तयोरभिनये भवेत् ।" "रस के बिना भाव नही और भाव के विना रस नहीं होते। इन रस और भावों की सिद्धि एक दूसरे पर निर्भर है। रस और भावों मे इतनी स्पष्टता होने पर भी रस और भाव के निरूपण मे एकवाक्यता नहीं है । विभिन्न मत इस विपय मे भी हैं, और अब तक कोई ऐसा सिद्धांत निश्चित नहीं हुआ, जो सर्वमान्य हो। ऊपर १३ - .
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