१६२ विभाव, अनुभाव, ओर व्यभिचारी भाव के सयोग से रस की. निष्पत्ति होती है। काव्यप्रकाशकार की यह सम्मति है- "कारणान्यथ कार्याणि सहकाराणि यानि च । रत्यादे स्थायिनो लोके तानि चेन्नाव्यकाव्ययो । विभावा अनुभावास्तत् कथ्यते व्यभिचारिण । व्यक्त स तैर्विभावाद्यै. स्थायी भावो रसस्मृतः ॥" नाट्य और काव्य मे रति आदिक स्थायी भावो के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, उनको विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी क्रम से कहते है। इन विभावादि की सहायता से व्यक्त स्थायी, भाव की रस सजा होती है। विभावादिको की व्याख्या 'वालबोधिनी' टीकाकार ने यह की है- 'वासनारूपतयातिसूक्ष्मरूपेणावस्थितान् रत्यादीन् स्थायिन विमाववति आस्वादयोग्यता नयतीति विमावा ।' वासना रूप से अति सूक्ष्म आकार मे स्थिति रति आदिक स्थायी भावो को जो आन्वादन योग्य बनाते हैं उनको विभाव कहते है-यथा नायक नायिका, पुप्पवाटिकादि । 'रत्यादीन् स्थायिन अनुभावाति अनुभवविषयीकुर्वतीति अनुभावा. ।' रति आदिक स्थायी भावों को जो अनुभव का विपय बनाते हैं, उन को अनुभाव कहते है-यथा कटाक्षादि । "विशेषेणाभित (सर्वागव्यापितया) रत्याद्वीन् स्थायिन काये चारयति मंचारपति मुहुर्मुहुरभिन्यजयतीति वा व्यमिचारिणः ।" "झ्यायिन्युन्मग्ननिमग्नाः कल्लोला इव वारिधी" मांग में व्यापित होकर जो रति आदिक स्थायी भावो के शरीर में सच रण करते है, समुद्र मे कल्लोल-समान उठते और विलीन होते हैं, उनको सचारी भाव कहते हैं-हर्य, उदग, चपलता आदि इसके उदाहरण हैं। 6
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