१६१ - 'सचारिणः पघानानि देवादिविषया रतिः । उबुद्धमात्रः स्थाया च भाव इत्यभिधीयते ॥" "प्रधानता से प्रतीयमान निर्वेदादि संचारी तथा देवता, गुरु आदि के विपय मे अनुराग एवं सामग्री के अभाव से रस रूप को अप्राप्त उद्बुद्धमात्र रति, हास, आदिक स्थायी, ये सब 'भाव' कहाते हैं। दूसरे स्थान पर वे लिखते हैं- "देव-मुनि-गुरु-नृपादिविषया च रतिरुवुद्धमात्रा विभावादिभिरपरिपुष्टतया रसरूपतामनापद्यमानाश्च स्थायिनो भावा भावशब्दवाच्याः।" "देवता, मुनि, गुरु और नृपादि-विपयक रति (अनुराग) भी प्रधान- तया प्रतीत होने पर 'भाव' कहलाती है, और उद्बुद्धमात्र अर्थान् विभावादि सामग्री के अभाव से परिपुष्ट न होने के कारण रस रूप को अप्राप्त हास, क्रोधादि भी 'भाव' ही कहलाते हैं। काव्यप्रकाशकार की भी यही सम्मति है। वे लिखते हैं- "रतिवादिविषया व्यभिचारी तथाजित:-भावः प्रोक्तः।" वालबोधिनी टीकाकार की व्याख्या यह है- "रतिरिति सकलस्थायिभावोपलक्षणम् । देवादिविषयेत्यपि अप्राप्सरसावस्थोप लक्षणम् । तथा शब्दश्चार्थे । तेन देवादिविषया सर्वप्रकारा, कातादिविषयापि अपुष्टारतिः, हासादयश्च अप्राप्तरसावस्थाः, विभावादिभिः प्राधान्येनाजितो व्यंजितो व्यभिचारी च भावः प्रोक्तः मावपदाभिधेयः।" भावार्थ इसका यह है कि देवता, मुनि, गुरु, नृप अथच पुत्रादि- विषयक अनुराग (रति) कांतादि विषयिणी अपुष्ट रति, विभावादि के प्राधान्य से व्यंजित व्यभिचारी, और रस अवस्था को अप्राप्त हासादिक स्थायी की 'भाव' संजा होती है। 'भाव' का लक्षण आप लोगों ने देखा, अब 'रस' का लक्षण देखिये। नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि लिखते हैं- 'विभावानुमावव्यमिचारिसयोगाद्रसनिष्पत्तिः। .
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