१६० > अवास्थायिको भक्तिरस स्पृहास्यायिकः कार्पण्याख्यो रसोऽतिरिक्त इत्यपास्तम् । त्रयाणामपि भावातर्गतत्वात् । "प्रेयासादि तीनो को 'भाव' के अतर्गत माना है। जिसका स्थायी अभिलाष है उसको लौल्य रस, जिसका स्थायी श्रद्धा है उसको भक्ति रस, जिमका स्थायी स्पृहा है उसको कार्पण्य रस कहा है, किंतु ये तीनों भी भाव ही के प्रतर्गत हैं। मोमेश्वर को सम्मति निम्नलिखित बतलाई गई है- "स्नेहो भक्तिर्वात्सल्यमिति रतेरेव विशेषाः । तेन तुल्ययोरन्योन्य रति. स्नेह , अनुत्तमस्योत्तमे रतिर्भक्ति उत्तमस्यानुत्तमे रतिर्वात्सल्यम् इत्येवमादौ भावस्यै- वात्वाद्यत्वमिति"। स्नेह, भक्ति, वात्सल्य, रति के ही विशेप रूप हैं। तुल्यो की अन्योन्य गति का नाम स्नेह, उत्तम मे अनुत्तम की रति का नाम भक्ति और अनुत्तम मे उत्तम की रति का नाम वात्सल्य है। आस्वाद्य की दृष्टि से ये सब 'भाव' ही कहे जाते हैं। एक अन्य विद्वान् की अनुमति यह है- 'नेहो भनिर्वात्सल्य मैत्री आवध इति रतेरेव विशेषा | तुल्ययोमिथोरतिः स्नेह. प्रेमेति यावत् । तथा तयोरेव निष्कामतया मिथो रतिमैत्री, अवरस्य वरे रतिभक्ति. सैव विपरीता वात्सल्यम् । सचेतनानामचेतने रतिरावध इति ।" म्नेह, भक्ति, वात्सल्य, मैत्री, आबंध, रति के ही विशेष रूप हैं। तुल्य लोगों की परस्पर रति, स्नेह अथवा प्रेम, उनकी परस्पर निष्काम गति 'मैत्री', श्रेष्ट मे माधारण की रति 'भक्ति', छोटो मे बडो की रति वात्सल्य और अचेतन में नचेतन की रति 'आबंध' कहलाती है। ऊपर के अवतरणो के देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि वात्सल्य को रति का ही रूप माना गया है, और यह बतलाया गया है कि वह ग्ल' नही 'भाव है। माहित्यदर्पणकार 'भाव' का लक्षण यह जनताले ,
पृष्ठ:रसकलस.djvu/२०५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।