१८७ किंकिनी कलित कटि हाटकजटित मनि, मजु कर कजन पहुंचियाँ रुचिरतर। पियरी झोनी अंगुली साँवरे सरीर खुली, बालक दामिनि ओढ़ी मानो वारे वारिधर ॥ उर बघनदा, कठ कठुला, मुंहले केस, मेढ़ी लटकन मसि बिदु मुनि मनहर । अजन रजित नैन, चित चोरै, चितवनि मुख- सोमा पर वारी अमित कुमुममर ॥ चुटकी बजावति नचावति कौसल्या माता बालकेलि गावति मल्हावति सुप्रेम भर । किलकि किलकि हॅसें, दै _ ददुरिया लस 'तुलसी के मन बसें तोतरे बचन बर ॥ ३॥ कैसा सरस और अद्भुत बाल केलि वर्णन है। ऐसे और कई एक पद गीतावली मे हैं, कितु सबके उद्धृत करने का स्थान कहाँ! इच्छा होने पर भी उनको छोड़ता हूँ। कुछ रचनाएँ खड़ीबोली की भी देखिये। सामयिक रुचि की रक्षा के लिये ही ऐसा किया जाता है, नहीं तो अमृतरस-पान कराकर इक्षुरस पिलाने का उद्योग कौन करेगा ? लड़कपन भोला-भाला बहुत निराला लाखो ऑखो का उजियाला । खिले फूल सा खिला फबीला बड़े छबीले मुखड़ेवाला ॥१॥ हसी खेल का पुतला प्यारा बना रॅगीला नोखा न्यारा । जगमग जगमग करनेवाला उगा हुआ चमकीला तारा ॥ २ ॥ स्वर्ग लोग में रहनेवाला रस सोतों में बहनेवाला। जा को वहुत लुभानेवाला बात अनूठी कहनेवाला ।। ३ ॥ रस के किसी पेड़ से टूटा फल उमग हाथों का लटा । समय बड़ी सुथरी चादर पर कढा सुनहला सुंदर बूटा ॥ ४॥
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