सौंदर्य, क्या शब्दविन्यास, सभी बातो में उनकी कीर्तिपताका भगवती वीणापाणि के उच्चतर करकमलों में ही विद्यमान है। देखिये, रससमुद्र किस सरसता से तरंगायित है- नेक विलोकि धीं रघुबरनि । चारि फल त्रिपुरारि तोको दिये कर नृपघरनि । बाल भूखन बसन तन सुदर रुचिर रज भरनि । परसपर खेलनि अजिर उठि चलनि, गिरि गिरि परनि । मुकनि झाँकनि छाँह सो किलकनि, नटनि, हठि लरनि । तोतरी बोलनि, विलोकनि, मोहनो मनहरनि । चरित निरखत विबुध 'तुलसी' श्रोट टै जलघरनि । चात सुर सुरपति भयो सुरपति भए चहैं तरनि ॥ १ ॥
छगन मॅगन अँगना खेलत चारु जारयो भाई । सानुज भरत लाल लखन राम लोने लरिका लखि मुदित मातु समुदाई । बाल बसन भूखन धरे नखसिख छबि छाई । नील पीत मनसिज सरसिज मजुल मालनि मानो है देहनि ते दुति पाई। ठुमक ठुमुक पग धरनि नटनि लरखरनि सुहाई । अजनि मिलनि रूठाने तूठनि किलकनि अवलोकनि बोलनि बरनि न जाई । सुमिरत श्रीरघुबरन की लीला लरिकाई । 'तुलसिदास' अनुराग अवध आनँद अनुभवत तव को सो अजहुँ अवाई ॥ २ ॥ छोटी छोटी गोपियाँ अंगुरियों छबीली छोटी नखजोति मोती मानो कमल-दलनि पर । ललित आँगन वल ठुमुक टुमुक चलें, झनु, अझनु पाय पजनी मृदु मुखर ॥